
— देवेन्द्र गर्ग —
अगले कुछ दिनों में उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। मुकाबला बेहद कांटे का है। समाजवादी पार्टी इस चुनाव में भाजपा की सत्ता को चुनौती देने वाला प्रमुख दल बनकर उभरा है। यूपी के साथ अन्य चार राज्यों के चुनाव बाद साल 2023 तक भारत के कई प्रमुख राज्यों में चुनाव होने हैं, जिनका समापन 2024 के आम चुनावों के साथ होगा। अगर भाजपा उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतती है, तो ये उसका हौसला बढ़ाने वाली जीत होगी। लिहाजा पार्टी ने प्रदेश में अपनी पूरी ताकत झोंक दी है।
जातिवाद चुनौती
यूं तो उत्तर प्रदेश के चुनावों में जातिवाद हावी रहा है, लोकिन पिछले तीन चुनावों (लोकसभा के दो और विधानसभा के एक) ने उत्तर प्रदेश की नई राजनीति इबारत लिखी है। इन चुनावों में भाजपा ने अल्पसंख्यक बनाम बहुसंख्यक धु्रवीकरण के जरिये जातिगत समीकरण ध्वस्त किए हैं। अब एक बार फिर भाजपा की कोशिश है कि वोटों को जातिगत आधार पर नहीं बंटने दें। भाजपा की इस कोशिश के पुख्ता कारण भी हैं। साल 2014 में उत्तर प्रदेश में भाजपा का वोट 21 प्रतिशत था, जो ध्रुवीकरण के कारण 2019 के आम चुनाव में बढक़र 57 फीसदी हो गया। भाजपा हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कराने में सफल रही।
इस बड़े राज्य में कांग्रेस के लगातार कमजोर होते जाने से मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बसपा मजबूत बनकर उभरी। इन दोनों पार्टिंयों ने अपने-अपने जातीय वोट बैंक को मजबूत कर लिया। इनकी गणित रही कि अपने जातिगत वोटों के साथ मुस्लिम वोट बैंक जोड़ो और राज करो। इसी समीकरण के कारण ही मुलायम सिंह, उनके पुत्र अखिलेश यादव और मायावती प्रदेश के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचने में सफल भी रहे।
मुलायम सिंह ने तो मुस्लिम वोट बैंक को साधे रखने के चक्कर में हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं तक से खिलवाड़ करने में कसर नहीं छोड़ी। बाद में अखिलेश यादव ने सपा के सर्वेसर्वा बनकर सत्ता पाने का यही फार्मूला अपनाया। वो एनआरसी, नागरिकता संशोधन बिल आदि मुद्दों पर मुसलमानों के साथ खड़े नजर आए।
साल 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी 3 करोड़ 84 लाख 83 हजार 967 यानी लगभग 19.26 फीसदी है। इस चुनाव में अखिलेश की पूरी कोशिश है कि मुस्लिमों का इतना बड़ा वोट बैंक पूरी तरह से उनकी पार्टी के ही साथ रहे।
बसपा नरम, जूझती कांग्रेस
राज्य के पिछले विधानसभा चुनावों के बाद बसपा प्रमुख मायावती की सक्रियता लगातार कम होती गई है। इसके पीछे उनके स्वास्थ्य कारणों को बताया जा रहा है। मायावती के अलावा उनकी पार्टी में ऐसा कोई दूसरा नेता नहीं है जो पार्टी के वोट बैंक को मजबूती से थामे रहे। इस कारण बसपा इस चुनाव में खासी कमजोर नजर आ रही है। बसपा को कमजोर देखकर मुस्लिम वोटों का झुकाव पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के पक्ष में होता नजर आ रहा है। वैसे भी मुस्लिम अमूमन उसी पार्टी को वोट करते हैं, जो भाजपा को टक्कर देने में सक्षम नजर आती है।
मुस्लिम वोटों के समाजवादी पार्टी के पक्ष में इस तरह पूरी तरह झुक जाने से माना जा रहा है कि सीधी टक्कर अब भाजपा और समाजवादी पार्टी में होगी। बसपा और कांग्रेस की वैसे तो वोट कटवा की भूमिका मानी जा रही है, लेकिन कांग्रेस के प्रयोग कुछ रंग दिखा सकते हैं। पार्टी ने महिलाओं को केन्द्र में रखकर चुनावी वैतरणी पार करने का खतरा मोल लिया है। उसने कुछ ऐसी शोषित व पीडि़त महिलाओ कों प्रत्याशी बनाया है, जो विगत सालों में सुर्खियों में रही हैं। इन महिलाओं के संघर्ष ने जनमानस को भी उद्वेलित किया था। कांग्रेस इसी उद्वेलन को अपने वोटों में बदलने के लिए शोर-शराबे से दूर ‘लो-प्रोफाइल’ प्रचार में जुटी हुई है।
इस बीच, असदुद्दीन आवैसी की सक्रियता ज्यादा मायने तो नहीं रख रही, लेकिन भाजपा और सपा दोनों को उनकी मौजूदगी से असहज हो रही हैं। हालांकि पश्चिम बंगाल के पिछले विधानसभा चुनावों में बने समीकरण पर गौर करें तो वहां मुस्लिम समुदाय के थोक वोट ममता बनर्जी को मिले थे, जबकि फुरफुरा शरीफ के एक प्रभावशाली मौलाना और आईएसएफ के मुखिया पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के साथ समझौते के बावजूद कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का सूपड़ा साफ हो गया था। ऐसे में उत्तर प्रदेश में औवैसी की सक्रियता चुनाव परिणाम को ज्यादा प्रभावित करती नहीं दिख रही है।
ध्रुवीकरण का जोर
मुसलमानों के सपा की तरफ पूरी तरह से झुक जाने से भाजपा सतर्क हो गई है। उसकी पूरी कोशिश है कि इस बार भी हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कराकर उनको जातिगत आधार पर नहीं बंटने दे। उधर, अखिलेश भी इस बात को जानते हैं कि यदि चुनाव में हिंदू-मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण हो गया तो उनके सारे सपने धराशाही जो जाएंगे। इसलिए अखिलेश इस बार पूरी तरह मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से थोड़ी दूरी बनाए हुए हैं। उनको विश्वास है बसपा के कमजोर पडऩे से मुस्लिम मतदाताओं के पास सपा के पक्ष में मतदान करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसी रणनीति के तहत अखिलेश ने ओवैसी की एआईएमआईएम से चुनाव में गठबंधन करने से इनकार कर दिया। पिछले चुनावों के मुकाबले सपा ने मुस्लिम उम्मीदवारों की संख्या भी कम कर कर दी है। यह अखिलेश का काफी सोच-समझकर लिया गया फैसला है। उन्होंने मुस्लिम बहुल सीटों पर सभी मुस्लिम उम्मीदवार खड़े नहीं किए हैं। क्योंकि उनको डर है कि अगर सपा मुस्लिमों के साथ खुले रूप से दिखेगी तो प्रदेश में हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण होना तय है।
अखिलेश द्वारा भगवान परशुराम की 108 फीट ऊंची मूर्ति लगाने का ऐलान, लखनऊ के गोसाईगंज इलाके में अपनी पार्टी के एक ब्राह्मण नेता द्वारा बनवाए गए भगवान परशुराम के मंदिर में पूजा-अर्चना करना तथा दिसंबर में रायबरेली जिले की अपनी यात्रा के दौरान हनुमान मंदिर का दौरा करना, हिंदुओं का ध्रुवीकरण टालने की उनकी रणनीति का हिस्सा ही माना जा रहा है। इस संदर्भ में अखिलेश का मिर्जापुर दौरे भी चर्चित रहा है। वहां उन्होंने विंध्यवासिनी देवी के दर्शन तो किए, लेकिन कुछ ही दूरी पर स्थित कंतित शरीफ की दरगाह पर नहीं गए।
उधर, प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हिंदू वोटों को पूरी तरह गोलबंद करने की कोशिश कर रहे हैं। अपनी इसी कोशिश में उन्होंने पिछले दिनों बयान दिया था कि यह चुनाव 80 बनाम 20 का होगा। 80 फ़ीसदी समर्थन एक तरफ होगा और 20 फीसदी दूसरी तरफ होगा। योगी के इस बयान को 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी के आंकडे से जोडक़र देखा गया।
यूपी में अब तक भाजपा के चार मुख्यमंत्री हुए हैं। योगी आदित्यनाथ से पहले, कल्याण सिंह, राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल चुके थे। मगर इनमें से कोई भी लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए सत्ता बरकरार नहीं रख सका। अब योगी आदित्यनाथ के लिए इस परिपाटी को तोडऩा बड़ी चुनौती है। यदि वह सफल हुए तो भाजपा के लिए नया रिकॉर्ड कायम करेंगे।