
— रतनमणि लाल
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के परिणाम कई मायनों में ऐतिहासिक है। इसके बाद देश और प्रदेश में कई राजनीतिक कीर्तिमान स्थापित हुए हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में 37 वर्ष बाद किसी राजनीतिक दल ने सत्ता में वापसी की है। प्रदेश में 1985 के बाद हुए हर विधानसभा चुनाव में तत्कालीन सत्तारूढ़ दल की हार होती थी और किसी अन्य दल या गठबंधन को सरकार बनने का मौका मिलता था। अब 2022 के चुनाव में पहली बार, 2017 में प्रचंड बहुमत से सरकार बनाने वाली भाजपा को पुन: लोगों का समर्थन मिला है।
यह भी पहली बार हुआ है कि भाजपा ने पूरे पाँच साल सरकार चलाने के बाद चुनाव लड़ा और सत्ता में वापसी की। वर्ष 2017 तक भाजपा की सरकार कभी पाँच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई थी। यह भी उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पहले भाजपा का कोई भी मुख्यमंत्री पाँच वर्षों का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया था।
इस परिणाम से यह मिथक भी टूटा है कि केवल जनहित के कार्य करने से चुनाव नहीं जीते जाते और नोएडा जाने वाले मुख्यमंत्री चुनाव नहीं जीतते। भाजपा ने विकास, अपराध नियंत्रण, लोक कल्याण और डबल इंजन की सरकार के लाभ पर वोट मांगे और मुख्यमंत्री आदित्यनाथ अपने कार्यकाल में कई बार नोएडा भी गए। फिर चुनाव भी जीता।
उत्तर प्रदेश चुनाव के परिणाम ने सभी राजनीतिक दलों के सामने आत्मविवेचना और नीतियों के पुनरावलोकन के लिए भी बाध्य कर दिया है कि ऐसा उनमें क्या नहीं है जो भाजपा में है, जिससे चुनाव जीते जाते हैं। जहां संगठन की मजबूती, नेतृत्व, मार्गदर्शन आदि जैसे कई पहलू हैं जो किसी भी राजनीतिक दल को आंतरिक ताकत देते हैं। दूरगामी नीतियाँ और दूरदर्शी सोच के महत्व को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता।
भाजपा के पक्ष में क्या-क्या रहा
भले ही प्रदेश के मतदाताओं ने भाजपा को एक बार फिर सरकार बनाने का मौका दिया है, लेकिन 2017 की तुलना में उसकी सीटें (47) कम हुई हैं। इस बार कई जिले ऐसे हैं जहां भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली। भाजपा और योगी के पक्ष में जो बातें गईं, उनमें ये कुछ प्रमुख हैं –
मुख्यमंत्री का व्यक्तित्व : प्रदेश वासियों की याद में अभी पूर्व मुख्यमंत्रियों में मायावती और अखिलेश यादव के व्यक्तित्व और कार्यशैली ताजा हैं। इनकी तुलना वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से करना आसान था। योगी के पक्ष में उनकी कठोर प्रशासक, निर्णायक स्वभाव, अपराध-नियंत्रण और तुष्टीकरण-विरोधी छवि गई। साथ ही, धर्म या क्षेत्र के आधार पर भेदभाव, पक्षपात और निर्णय लेने में देरी जैसे कारण भी नहीं थे। उनका परिवार से जुड़ा न होना, किसी भी प्रकार के संबंधियों या पार्टी के गुट से नजदीकियाँ न होना भी उन्हें एक निष्पक्ष नेता के तौर पर पहचान दे गया।
केंद्र का सहयोग : उत्तर प्रदेश में वर्ष 2017 के पहले, कई दशकों तक राज्य सरकार और केंद्र सरकार के बीच टकराव एक सामान्य स्थिति हुआ करती थी। पूर्ववर्ती सरकारों के कार्यकाल के दौरान तो योजनाओं के क्रियान्वयन, बजट आवंटन, धनराशि के आहरण आदि विषयों पर केंद्र व प्रदेश के बीच आरोप-प्रत्यारोप तक लगाए जाते थे। ऐसा इसीलिए होता था कि दोनों जगहों पर अलग राजनीतिक दलों की सरकारें होती थींऔर दोनों ही विपरीत विचारधाराओं वाली होती थीं। ऐसा 2017 में कई वर्षों बाद हुआ कि उत्तर प्रदेश और केंद्र में भाजपा की सरकारें थीं और परियोजनाओं के अनुमोदन से लेकर केन्द्रीय समर्थन जैसे मामले बहुत कम समय में निबट रहे थे। इसकी वजह से उत्तर प्रदेश में कई बड़ी योजनाओं पर काम तेजी से शुरू हुआ और पूरा भी हुआ। इसे ‘डबल इंजन’ की सरकार का नाम दिया गया और इसका लाभ आम लोगों को समझाने में भाजपा सफल रही।
योजनाओं के लाभार्थी : अब यह सर्व-विदित है कि केंद्र और प्रदेश की तमाम योजनाओं का लाभ सीधे लोगों को मिलना भाजपा सरकार के पक्ष में गया। इनमें प्रधानमंत्री आवास, किसान सम्मान निधि, वरिष्ठ नागरिक पेंशन, स्कूल के बच्चों के लिए यूनिफॉर्म के लिए धनराशि, रसोई गैस सिलेन्डरऔर सामूहिक विवाह योजना आदि प्रमुख हैं। इन योजनाओं का लाभ धनराशि के रूप में लाभार्थियों के बैंक खातों में सीधे भेजा गया, जिसमें किसी भी प्रकार से बिचौलियों की कोई भूमिका नहीं रह गई। इनके अलावा, कोविड काल के दौरान शुरू किया गया मुफ्त राशन वितरण – जो अभी भी जारी है, भी भाजपा के पक्ष में बड़ा मुद्दा बना।
अपराध नियंत्रण : संगठित अपराधियों के खिलाफ चलाया गया अभियान और इसकी वजह से प्रदेश में कानून व्यवस्था पर जो प्रभाव पड़ा, वह लोगों द्वारा बहुत सराहा गया। शहरों और गावों में रह रहे लोग यह स्वीकार करते हैं कि अपराध और आपराधिक माहौल में कमी आई है। महिलाओं की सुरक्षा को लेकर भी लोगों में सरकार के प्रति विश्वास बढ़ा, जो महिलाओं द्वारा बढ़े हुए मतदान के रूप में दिखाई दिया। पिछले कुछ सालों में उत्तर प्रदेश में कई कुख्यात अपराधियों के खिलाफ अभियान चलाया गया और ऐसे तत्वों की संपत्ति जब्त करके उसे ध्वस्त करने की कार्रवाई भी सही संदेश देने में सफल रही।
ध्रुवीकरण की सीमाएं : धु्रवीकरण की कोशिशें उत्तर प्रदेश की राजनीति में हमेशा होती आई हैं। मगर इस बार चुनाव प्रचार के दौरान इस तरह का कोई प्रत्यक्ष प्रयास ‘दंगे आदि’ नहीं दिखे। अयोध्या में श्रीराम मंदिर का निर्माण चूंकि हो ही रहा है, इसलिए इसे भी मुद्दे के तौर पर उठाने का कोई औचित्य नहीं था। इसके स्थान पर उत्तर प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के सरकार के प्रयासों की चर्चा सत्तारूढ़ नेताओं द्वारा की गई। ऐसा लगता है कि जमीनी स्तर पर धु्रवीकरण करने की बहुत ज्यादा गुंजाइश अब शायद न रह गई हो, क्योंकि लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के लिए नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ज्यादा महत्वपूर्ण है, न कि तथाकथित हिंदुत्व के मुद्दे।
इसी तरह, योगी आदित्यनाथ की पाँच साल तक चली सरकार के दौरान अल्पसंख्यक समुदाय की प्रताडऩा बड़ा मुद्दा नहीं बनी। यह एक वजह हो सकती है कि सिर्फ मुस्लिम हितों को आधार बनाकर चुनाव लडऩे वाली पार्टी-आल-इंडिया एमआईएम को कोई विशेष सफलता नहीं मिली।
अब चुनौती का समय
आने वाले पाँच साल भाजपा सरकार के लिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि उसे अपने संकल्प पत्र में की गई घोषणाओं को तो पूरा करना ही है, साथ ही 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव में भाजपा के पिछले दो चुनावों के प्रदर्शन को बनाए रखने की चुनौती भी है। पिछले कार्यकाल में जो कुछ भी सरकार ने किया, अब उससे आगे बढक़र कुछ करना है। नई सरकार बनाने में क्या बदलाव किये जाएंगे, इस पर भी लोगों की नजर रहेगी। समाजवादी पार्टी एक मजबूत विपक्ष हो कर उभरी है। इसके सदस्यों द्वारा विधानसभा के अंदर और बाहर आक्रामक रवैया अपनाने की पूरी उम्मीद है। यह भी भाजपा नेतृत्व के लिए एक चुनौती होगी।
योगी के ऊपर 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को भारी जीत दिलाना और मोदी को फिर से प्रधानमंत्री बनने की राह प्रशस्त करना एक बड़ी चुनौती है। इस कारण सरकार बनते ही योगी फिर से चुनाव मोड में आ जाएं तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
क्यों हुई बसपा की दुर्गति
आत्मावलोचन और नीतियों के पुनरावलोकन की सबसे ज्यादा जरूरत इस समय बहुजन समाज पार्टी (बसपा) को है। बसपा को उत्तर प्रदेश में केवल एक सीट पर विजय मिली है। चुनावी आंकड़ों के अनुसार बसपा को 2022 के चुनाव में 12.80 प्रतिशत मत मिले हैं, जबकि सबसे अधिक भारतीय जनता पार्टी को 42.56 प्रतिशत और समाजवादी पार्टी को 31.65 प्रतिशत वोट मिले हैं। यह आश्चर्यजनक लगता है कि जब 2007 में बसपा ने पूर्ण बहुमत के साथ 206 सीटें जीत कर सरकार बनाई थी तो वह उत्तर प्रदेश में 1985 के बाद ऐसा करने वाला पहला दल था। दलित वर्ग के संघर्ष का प्रतिनिधित्व करने वाली मायावती के जुझारू राजनीतिक जीवन में यह एक बड़ी उपलब्धि थी, क्योंकि इसके पहले वे तीन बार भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से ही सरकार बना पाईं थीं। वर्ष 2007 से 2012 तक मायावती के नेतृत्व में बसपा सरकार चली। उस दौरान लखनऊ और नोएडा जैसे शहरों में अंबेडकर स्मारक और पार्क बनाए गए, कुछ संगठित अपराधियों के खिलाफ अभियान भी चले, लेकिन उसी समय एनआरएचएम (स्वास्थ्य सेवाएं) घोटाले और वर्ष 2011 में उससे जुड़े तीन सीएमओ की हत्या के बाद तो जैसे बसपा की लोकप्रियता धरातल पर आ गई।
घटता वोट प्रतिशत : इसके बाद से सभी चुनावों में बसपा की सीटें और वोट प्रतिशत घटता चला गया। वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा को उत्तर प्रदेश की 80 में से 20 सीटें मिलीं (वोट प्रतिशत 28.1), 2012 के विधानसभा चुनाव में 80 सीटें (वोट प्रतिशत 26), 2014 के लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं (वोट प्रतिशत 19.77), 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें (वोट प्रतिशत 22.2) तथा 2019 के लोकसभा चुनाव बसपा ने सपा के साथ गठबंधन में लड़ा तो उसका वोट प्रतिशत गठबंधन वाली सीटों पर बढ़ा, लेकिन अन्यत्र बहुत कम हुआ।
अपने आगे कोई नहीं : ऐसा नहीं है कि इन वर्षों में मायावती के दलितों के बीच सम्मान में कोई कमी आई हो। वे दलित चेतना और राजनीतिक सफलता का प्रतीक बनी रहीं और ब्राह्मण, मुस्लिम व कुछ अन्य पिछड़े दलों के बीच एक मजबूत नेता के तौर पर अपना प्रभाव बनाए रखने में सफल रहीं। जो कमी आई, वह थी उनके इर्द-गिर्द मजबूत बसपा नेताओं के पार्टी में बने रहने में। ऐसे कई नेता लगातार पार्टी छोड़ते रहे। वर्ष 2017 में तो मायावती के करीबी रहे मजबूत नेता-स्वामी प्रसाद मौर्य, नसीमउद्दीन सिद्दीकी, बृजेश पाठक समेत कई विधायकों ने पार्टी छोड़ दी। यह मायावती द्वारा अपनी पार्टी में किसी भी दो नंबर के नेताओं को मजबूत न होने देने की प्रवृत्ति का नतीजा था। इसकी वजह से पार्टी में कोई वैकल्पिक नेतृत्व भी तैयार नहीं हो पाया। नवम्बर 2019 में मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अपने भांजे आकाश आनंद को राष्ट्रीय कोऑर्डिनेटर नियुक्त किया। यह उनकी ओर से संकेत था कि पार्टी में उनके उत्तराधिकारी के तौर पर कोई और नेता नहीं, बल्कि उनके ही परिवार के सदस्य रहेंगे।
केवल सतीश चंद्र मिश्र ही एकमात्र नेता हैं जो 2004 से ही बसपा में बने हुए हैं और पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव के पद पर हैं। साथ ही राज्यसभा के सदस्य भी हैं। उनके प्रयासों की वजह से कुछ हद तक ब्राह्मण समाज का साथ बसपा को कुछ वर्षों तक मिला। 2007-12 में बसपा की सरकार के दौरान मिश्र पार्टी में सबसे ताकतवर थे। लेकिन हालिया चुनाव में मिश्र की तमाम कोशिशों के बावजूद बसपा को न ब्राह्मणों का साथ मिला, न ही तथाकथित ‘प्रबुद्ध वर्ग’ का समर्थन मिला।
बी-टीम का ठप्पा : यह भी राजनीतिक गलियारों में चर्चा थी, बल्कि तय ही माना जा रहा था कि यदि भाजपा को बहुमत का आंकड़ा पाने में कोई कमी रह जाएगी, तो बसपा वह कमी पूरी कर देगी। बसपा की ओर से मायावती के भांजे आकाश आनंद को भाजपा-बसपा सरकार में महत्वपूर्ण पद मिलेगा। इस चर्चा को चुनाव प्रचार के दौरान केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के एक इंटरव्यू से भी बल मिला था, जिसमें शाह ने कहा था कि बसपा ने उत्तर प्रदेश में अपनी प्रासंगिकता बनाई हुई है और उनकी जमीन पर पकड़ है। उन्होंने यह भी कहा था कि यह कहना सही नहीं है कि बसपा की प्रासंगिकता खतम हो गई है।
भले ही भाजपा के लिए बसपा और मायावती की प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई हो, लेकिन बसपा के समर्थकों, कार्यकर्ताओं और हितैषियों के लिए यह कठिन समय है। ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो चुनाव व मतदान के दौरान कहते थे कि बसपा को हल्के में नहीं लिया जा सकता और मायावती के पास अपना एक मजबूत वोट बैंक है जो चुपचाप कुछ कमाल कर दिखाएगा। यह बसपा के लिए चिंता का कारण है कि उसके दलित वोटबैंक से गैर-जाटव समुदाय ने पूरी तरह से पार्टी का साथ छोड़ दिया है। मायावती के लिए अपने बचे हुए जनसमर्थन, कार्यकर्ताओं और पार्टी पदाधिकारियों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए पार्टी में नए सिरे से पुनर्गठन का समय अभी ही है। इस तरह की घोषणा उन्होंने कर भी दी है।
काँग्रेस का अब क्या?
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की राजनीति में दशकों तक वर्चस्व बनाए रखने के बाद हाशिये पर जाना किसी भी राजनीतिक दल के लिए एक चिंताजनक घटना है। खास तौर पर जब वापस आने के सभी प्रयास विफल रहते हैं। जीवन और समाज में भी एक बार ध्यान से उतर जाने के बाद किसी व्यक्ति का पुन: केन्द्र में आना लगभग असंभव माना जाता है। कुछ ऐसा ही उत्तर प्रदेश में काँग्रेस पार्टी के साथ हुआ। दशकों तक प्रदेश में सत्ता में रहने के बाद काँग्रेस वर्ष 1989 में सत्ता से बाहर हुई। उस समय पार्टी में अनेक दिग्गज नेता सक्रिय थे, लेकिन अन्य राजनीतिक विचारधाराओं वाले दलों के शोर-शराबे के बीच यह पार्टी कहीं खो सी गई। काँग्रेस की नीतियों और विचारों से सहमत रहने वाले लोग कहीं न कहीं आशावान थे कि पार्टी एक बार फिर अपने सम्मानजनक स्थान पर वापस आएगी, लेकिन कई कारणों से ऐसा हो न पाया।
इस चुनाव के पहले पार्टी की महासचिव और प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा की सक्रियता सामने आई और उन्होंने महिलाओं और रोजगार के नाम पर प्रदेश-व्यापी चुनाव अभियान चलाया। उत्तर प्रदेश में 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को देने का उनका निर्णय और ‘लडक़ी हूं लड़ सकती हूं’ नारा खासा लोकप्रिय हुआ। लेकिन अंतत:, पार्टी में किसी बड़े नेता का उत्तर प्रदेश में सक्रिय न होना, प्रदेश स्तर पर किसी लोकप्रिय नेता का अभाव और समाजवादी पार्टी के साथ अघोषित गठबंधन की खबरों की वजह से पार्टी ने अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन किया है। पार्टी को केवल दो सीटें मिलीं, महिलाओं में भी केवल एक वो महिला उम्मीदवार जीतीं जो पहले से ही मजबूत थीं। बाकी किसी भी जिले में कांग्रेस उम्मीदवार दूसरे नंबर पर भी नहीं रहे।
अब परिणाम आने के बाद प्रियंका कह रही हैं कि लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है। हमारे कार्यकर्ताओं ने मेहनत की, संगठन बनाया और जनता के मुद्दों पर संघर्ष किया। हम मेहनत को वोट में तब्दील करने में कामयाब नहीं हुए। आगे काँग्रेस पार्टी राज्य की जनता की भलाई के लिए संघर्षशील विपक्ष की जिम्मेदारी निभाती रहेगी। स्पष्ट है कि महिला सशक्तिकरण, रोजगार, किसान कल्याण आदि बातें तब तक किसी पार्टी को फायदा नहीं पहुंचाती जब तक जनता उस पार्टी को गंभीरता से नहीं लेती। भले ही प्रियंका के शालीन प्रचार को लोगों ने पसंद किया हो, लेकिन बदलाव पार्टी के शीर्ष स्तर के नेतृत्व में आना ज्यादा जरूरी है।
सपा होगी मजबूत
अखिलेश यादव के ऊपर इस बार 2017 में सपा और यादव परिवार में बिखराव का दाग मिटाने की बड़ी चुनौती थी। यदि वे सत्ता में वापस आते तो इस चुनौती से पार पा सकते थे। लेकिन इस बार भी चुनाव हर जाने के बाद ऐसी बातें फिर कही जाएंगी कि पिता मुलायम सिंह यादव और अन्य वरिष्ठ जन को दरकिनार कर पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में लेने का यह नतीजा हुआ। भले ही सपा ने पिछले चुनाव की 47 सीटों के मुकाबले इस बार 111 सीटें (सहयोगी दलों को मिला कर 125) जीतीं हों, लेकिन सत्ता में न आने का मलाल तो है ही।
स्पष्ट है कि अब अखिलेश के लिए पार्टी को समेट कर रखना, सहयोगी दलों (खास तौर पर राष्ट्रीय लोक दल और सुभासपा) की महत्वाकांक्षा को सहेजना और अपने कार्यकर्ताओं को काबू में रखना बड़ी चुनौतियाँ हैं। उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से सत्तापक्ष को ललकारा था, वो उनके कार्यकर्ताओं के लिए अत्यंत उत्साहवर्धक था। मगर अब उसका फायदा मिलने का मौका उनके पास नहीं है। ऐसे में सपा के विधायकों के व्यवहार को काबू में रखना एक चुनौती रहेगी।
अखिलेश के पक्ष में राष्ट्रीय दलों की ओर से केवल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सामने आईं थीं। अब 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए यदि कोई गैर-भाजपा मोर्चा बनता है तो उसमें सपा और तृणमूल काँग्रेस की प्रमुख भूमिका होगी। अखिलेश को यह भी एक निर्णय लेना है कि वे 2024 के लिए अपनी ताकत या ऊर्जा लगाएं औऱ 2027 तक उसे संभाल कर रखें। इस बीच उनकी योगी सरकार के लिए कदम-कदम पर रुकावटें डालने की कोशिशें होती रहेंगी।
जहां तक प्रदेश के लोगों का सवाल है, उनमें एक वर्ग में एकतरफा भाजपा के खिलाफ वोट डालने के बावजूद सरकार न बदल पाने की निराशा है। वहीं, दूसरे बड़े वर्ग में यह आशा है कि मुफ्त राशन और अन्य सुविधाएं अब आगे भी मिलती रहेंगी।
काम का हुआ असर
उत्तर प्रदेश के परिणाम यह दिखाते हैं कि पूर्वांचल, बुंदेलखंड और पश्चिम उत्तर प्रदेश में परियोजनाओं का समय से पूरा होना भाजपा के हित में गया। यही नहीं, कुछ जिलों के परिणाम तो इसका एक कनेक्शन भी दर्शाते हैं।
पूर्वांचल में इस का सबसे अधिक प्रभाव देखने को मिला, जहां लखनऊ से गाजीपुर तक पूर्वांचल एक्स्प्रेसवे, वाराणसी में श्री काशी विश्वनाथ धाम कॉरिडर, गोरखपुर में एम्स, क्षेत्रीय मेडिकल रिसर्च सेंटर, दशकों से बंद पड़ी खाद फैक्ट्री का पुन: संचालन और सरयू नहर राष्ट्रीय सिंचाई परियोजना का लोकार्पण जैसे मेगा प्रोजेक्ट समय से पूरे हुए तथा किसानों, श्रद्धालुओं, व्यापारियों और आम जनता तक उनका लाभ पहुंचना शुरू हुआ। इसका प्रमाण है पूर्वांचल की वो 17 विधानसभा सीटें, जहां भारतीय जनता पार्टी को विजय मिली। इनमें वाराणसी की आठ और गोरखपुर की नौ सीटें शामिल हैं।
इसी प्रकार, कानपुर मेट्रो का सफल संचालन शुरू करने और आगरा मेट्रो का काम शुरू होने का भी असर इन क्षेत्रों के चुनाव नतीजों में परिलक्षित होता है। ब्रज क्षेत्र में आगरा की सभी नौ सीटें, मथुरा की सभी पाँच सीटें, एटा की सभी 4 सीटें और कानपुर देहात की सभी 4 सीटें भाजपा के पक्ष में गईं।
विगत वर्षों में नोएडा को लेकर अनेक प्रकार की भ्रांतियाँ पूर्ववर्ती सरकारों में प्रचलित थीं। उन मिथकों को तोड़ते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने कार्यकाल में अनेक बार नोएडा की यात्रा की और वहाँ आज एक विश्व-स्तरीय डेटा सेंटर, बहुराष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक कंपनियां, अत्याधुनिक कोविड कंट्रोल सेंटर संचालित हो रहा है। जेवर में देश का सबसे बड़ा अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा बन रहा है। स्थानीय निवासियों ने इन कार्यों को पसंद किया और उनका लाभ उन्हें मिला, जिसके फलस्वरूप राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में सभी 8 सीटें भाजपा ने प्रचंड बहुमत से जीतीं।
बुंदेलखंड में भी निर्माणाधीन डिफेन्स इन्डस्ट्रीअल कॉरिडर, बुंदेलखंड एक्स्प्रेसवे और हर घर जल परियोजना के सफल कार्यान्वयन के फलस्वरूप वहाँ के निवासियों ने इनके लाभ को समझा और भाजपा को इस क्षेत्र की 19 में 16 सीटों पर विजय दिलाई।
दलबदल से नहीं हुआ नुकसान
चुनावों के ठीक पहले दलबदल करने की परंपरा भारतीय राजनीति में नई नहीं है। मगर पिछले कुछ सालों से भाजपा छोडक़र जाने वाले नेताओं का उनके राजनीतिक भविष्य पर अच्छा असर नहीं हुआ है। उल्लेखनीय है कि 2019 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने गठबंधन कर पिछड़े वर्ग व दलित वर्ग के एक साथ होने का दावा किया था। किंतु इस गठबंधन को प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार तथा केंद्र की मोदी सरकार की उपलब्धियों के आगे बुरी हार का सामना करना पड़ा था। इस संदर्भ में बहराइच से पूर्व भाजपा सांसद सावित्रीबाई फूले का नाम उल्लेखनीय है। वे पहली बार 2014 के लोक सभा चुनाव में 4 लाख वोट पाकर भाजपा सांसद बनी थीं। मगर कुछ सालों में ही उनके बारे में संदेश मिलने लगे कि वे खुद को दलित समुदाय से होने तथा आक्रामक छवि के कारण पार्टी से ज्यादा महत्वपूर्ण मानने लगीं थीं। यही नहीं, कुछ ही समय बाद उन्होंने पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बारे में अनर्गल बयान देने शुरू कर दिए। वर्ष 2019 आते आते वह भाजपा छोड़ काँग्रेस में शामिल हो गईं। अपने भाजपा-विरोधी बयानों की वजह से उन्हें उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की भावी दलित महिला नेता के रूप में पेश किया जाने लगा। किंतु 2019 के चुनाव में उन्हें कुल 34 हजार वोट मिले और जमानत भी जब्त हो गई।
इसबार चुनाव के ठीक पहले लगभग एक दर्जन विधायक, जिनमें कुछ मंत्री भी शामिल थे, भाजपा छोड़ गए। इनमें प्रमुख थे स्वामी प्रसाद मौर्य जो 2017 के चुनाव से कुछ पहले बहुजन समाज पार्टी छोडक़र भाजपा में आए थे। उन्होंने इस चुनाव में भाजपा के खिलाफ काफी आक्रामक रवैया अपनाते हुए इस पार्टी और सरकार को बर्बाद करने जैसी बातें कह डालीं। लेकिन न केवल वे, बल्कि उनके साथ भाजपा छोडक़र गए एक और मंत्री धरम सिंह सैनी चुनाव हार गए।