राजस्थान में भाजपा ने पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को किनारे लगाने का मन बना लिया है। लेकिन समस्या विधानसभा चुनाव के लिए टिकट वितरण को लेकर है। पार्टी कई मौजूदा विधायकों के टिकट काट रही है। इसका नजारा प्रत्याशियों की पहली सूची में दिखा भी है। इसमें दो-तीन बार के जीते विधायकों के भी टिकट काटकर उनकी जगह पार्टी सांसदों को मैदान में उतारा गया है। जाहिर तौर पर असंतोष भी सामने आया है। ऐसा असंतोष कि पार्टी को दूसरी सूची जारी करने में वक्त लग रहा है।
सवाल ये है कि भाजपा डैमेज कंट्रोल कैसे करेगी ? जिन पार्टी नेताओं को रुठों को मनाने का जिम्मा सौंपा गया है, उनकी अपनी औकात क्या है? उनकी बातों में कितना वजन है? आखिर नाराज पार्टीजन उनकी बातों पर क्यों विश्वास कर शांत होंगे? ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं, क्योंकि डैमेज कंट्रोल से भी वसुंधरा को दूर रखा गया है। जबकि वह दो बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रही हैं। उनकी लोकप्रियता निःसंदेह है, जिसे भाजपा नेतृत्व जाहिर भले ही न कर रहा हो पर महसूस अवश्य कर रहा है। भाजपा नेताओं व कार्यकर्ताओं का बड़ा वर्ग आज भी वसुंधरा को अपना नेता मानता है। उनकी बातों पर विश्वास करता है।
बाकी जो नेता, गुस्साए पार्टी नेताओं व उनके समर्थकों को ठंडा करने के काम में लगाए गए हैं, वे अपने स्तर पर किसी प्रकार का भरोसा या आश्वासन देने की स्थिति में नहीं हैं। जानकारों का कहना है कि चुनाव के वक्त टिकट कटने से नाराज नेता शांत होने के लिए ठोस आश्वासन चाहते हैं। वह इच्छा रखते है कि पार्टी उन्हें विधायक या सांसद भले न बनाए, लेकिन सत्ता में आने पर उनको उऩके कद के मुताबिक राजनीतिक नियुक्ति का भरोसा तो दे। ये भरोसा वही पार्टी नेता दे सकता है, जो खुद पार्टी औऱ सरकार में प्रभावी स्थिति रखता हो। जिसकी बात पार्टी का शीर्ष नेतृत्व मानता हो या फिर वो खुद सरकार के मुखिया के नाते राजनीतिक नियुक्ति की शक्तियां रखता हो।
इस पैमाने पर गौर करें तो तस्वीर स्वतः साफ हो जाती है। वसुंधरा को छोड़कर प्रदेश का ऐसा कोई अन्य भाजपा नेता नहीं है, जो रूठों को पुख्ता आश्वासन देकर बैठा सके। तब भला डेमेज कंट्रोल में लगाए गए नेतागण अपनों के चढे तेवर को शांत कैसे कर पाएंगे? वहीं, वसुंधरा की बात करें तो वे आज भी वो हैसियत रखती हैं। तभी तो उनके करीबी भाजपा नेता व कार्यकर्ता साथ छोड़ने को तैयार नहीं हैं। इसकी पुष्टि वसुंधरा की इस साल हुई यात्राओं और सभाओं से भी की जा सकती है। उन्होंने पार्टी कार्यक्रमों से इतर देवदर्शन आदि यात्राएं निकालीं और जनसभाएं कीं, जिनमें न केवल उनके खेमे के सारे नेता मौजूद रहे, बल्कि लोगों की भीड़ भी उमड़ी। मतलब, उनका जनाधार अभी भी बरकरार है। ये सभी नेता पार्टी की नाराजगी के बावजूद, इस भरोसे से मैडम के साथ जुड़े हुए हैं कि यदि वो मुख्यमंत्री बनती हैं तो उन्हें वफादारी का इनाम जरूर मिलेगा।
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि भाजपा यदि राजस्थान में सत्ता वापसी को लेकर वाकई गंभीर है तो उसे सभी क्षत्रपों को साथ लेकर चलना होगा। उनके कद का आदर आदर करना होगा औऱ उसी के अनुरूप जिम्मेवारी सौंपनी होगी। पार्टी को जल्दी ही तय करना होगा कि उसका मकसद सिर्फ वसुंधरा को आईना दिखाना है या फिर राजस्थान को फिर से अपने फोल्ड में शामिल करना है। यदि मैडम को निपटाना ही असल मकसद है तो प्रदेश में पार्टी की सत्ता वापसी आसान नहीं होने वाली है।