
- एक संवाददाता –
उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का सत्ता में बरकरार रहना नया इतिहास रचने जैसा है। यह छोटा सा हिमालयी राज्य अभी मात्र 21 साल का हुआ है। मगर सत्ता परिवर्तन इसकी नियति बन गई थी। दो दलीय राजनीति वाले इस राज्य में भाजपा और कांग्रेस बारी-बारी से सत्तारूढ़ होते रहे हैं। किंतु इस बार के विधानसभा चुनाव में ये तिलस्म ऐसा टूटा कि सत्ता विरोधी माहौल के बावजूद भाजपा का सिंहासन नहीं हिला। तमाम समस्याओं के बावजूद विपक्षी कांग्रेस मौके का फायदा नहीं उठा सकी।
विधानसभा की 70 सीटों के चुनाव में कांग्रेस को जनता ने लगातार दूसरी बार नकार दिया। हालांकि भाजपा को भी झटका लगा। चार महीने पहले युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी कुमाऊं की तराई की खटीमा सीट नहीं बचा पाए। उनके साथ भाजपा के और भी दिग्गज चुनाव हार गए,लेकिन पार्टी का परचम लहराता रहा।
कांग्रेस को सालेगी हार
उधर, गुटबाजी और खेमों में बंटी कांग्रेस का बड़ा बुरा हाल हुआ। उसके मुख्यमंत्री पद के दावेदार हरीश रावत को लालकुआं विधानसभा सीट से निराशाजनक हार का सामना करना पड़ा। कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्र में अच्छा-खासा असर रखने वाले रावत अपने कई उन कई करीबियों को भी चुनाव नहीं जितवा पाए, जिनको उनकी पैरवी से टिकट मिले थे।
कांग्रेस को दूसरा झटका प्रदेश अध्यक्ष गणेश गोदियाल की पराजय ने दिया। श्रीनगर की प्रतिष्ठा की सीट पर मामूली वोटों से इस हार को जीत में बदलना ज्यादा मुश्किल नहीं था। यह रावत को दूसरा झटका था। उन्होंने ही गोदियाल को कुछ ही महीने पहले प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर बिठाया था। अब पांच साल सत्ता से दूर रहकर कांग्रेस अपनी हार का पश्चाताप करती रहेगी।
कांग्रेस के लिए मुश्किल यह है कि उसने 2017 की बुरी हार से कोई सबक नहीं सीखा। तब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हरीश रावत दो जगह से चुनाव हार गए थे। बुरी हार के बावजूद कांग्रेस हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। न संगठन का ढांचा बनाया और न ही जमीनी स्तर पर पार्टी का जनाधार बढ़ाने की कोशिश की।
कांग्रेस इस मुगालते में रही कि राज्य में नेतृत्व की खींचतान और भावी मुख्यमंत्री घोषित करने को लेकर मचा घमासान मतदान के दिन तक थम जाएगा, लेकिन उसका भ्रम अब टूट गया कि गुटबाजी और विधानसभा की टिकट बेचने के आरोप प्रत्यारोपों के बावजूद पहाड़ के लोग कांग्रेस को सत्ता की चाभी इतनी आसानी से सौंपने का जोखिम उठाएंगे।
साफ है कि भाजपा की तैयारियों और उसके अकूत धनबल तथा गांव के स्तर तक फैले नेटवर्क को कांग्रेस ने एकदम नजरअंदाज किया।
न विजन, न रणनीति
वैसे भी चुनावी तैयारियों को लेकर उत्तराखंड कांग्रेस के पास न तो कोई विजन था और न ही दिल्ली दरबार के पास कोई व्यापक रणनीति थी, जिसके बल पर पहाड़ों के ज्वलंत मुद्दों को उठाकर चुनाव को धार दी जाती। पहाड़ों में बेरोजगारी, खाली होते गांव, भ्रष्टाचार, घोटाले और तीन-तीन मुख्यमंत्री बदलने की नाकामियों को लेकर कांग्रेस की सत्तारूढ़ के खिलाफ कोई जोरदार घेराबंदी भी कहीं नहीं दिखी। गुटबंदी के कारण समय पर उम्मीदवारों को टिकट नहीं बांटे गए। खुद हरीश रावत नामांकन की आखिरी तारीख को ही तय कर पाए कि चुनाव कहां से लड़ेंगे। बिना तैयारी के लालकुआं सीट पर उतरना उनकी हार का बड़ा कारण था। टिकट वितरण के अंतिम क्षणों में उनके शिष्य रणजीत रावत ने ही हरीश रावत की टिकट पर ग्रहण लगा दिया और कांग्रेस के पूरे चुनाव अभियान की हवा निकाल दी। देखा जाए तो चुनाव के दौरान मौसम की मार सभी पार्टियों पर भारी पड़ी। इस कारण सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में कंपकंपाती ठंड और बर्फबारी के बीच कांग्रेस अपनी चुनावी मशीनरी को समय पर नहीं झोंक पाई, जबकि भाजपा ने अकूत पैसा, संसाधन और कार्यकर्ताओं की फौज हर जगह उतार दी।
चुनाव अभियान खत्म होने तक तो कांग्रेस के ज्यादातर रणनीतिकार देहरादून में गाडिय़ों में मंडारते दिखे। किसी ने भी दूरदराज के क्षेत्रों में पार्टी के बूथ प्रबंधन और मतदाताओं के सीधे संपर्क में रुचि नहीं ली। चुनाव अभियान के बीच कांग्रेस में आतंरिक तौर पर यह चर्चा लगातार रही कि कम से कम 20 विधानसभा सीटों पर कांग्रेस इसलिए चुनाव हार सकती है, क्योंकि उसने अयोग्य और खराब छवि के लोगों को टिकट बांट दिए।
उत्तराखंड कांग्रेस के प्रभारी देवेंद्र यादव पर हरीश रावत गुट ने खुलेआम टिकट बेचने का आरोप लगाया। हरीश रावत ने पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाने के लिए और अपने पक्ष में हवा बनाने की खातिर चुनाव से हटने तक की धमकी दे डाली। इतना ही नहीं कांग्रेस के खिलाफ मुस्लिम तुष्टिकरण को भी हथियार बनाया गया। भाजपा ने हरीश रावत के नेतृत्व वाली पिछली कांग्रेस सरकार पर यह भी झूठा आरोप हवा में उछाला कि राज्य में मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाने का ऐलान हुआ था। नमाज के लिए छुट्टी का दिन घोषित करवाने की आधारहीन खबरें भी भाजपा और उसके आईटी सेल ने सप्ताह भर तक चलाई।
कांग्रेस जब तक भाजपा की मशीनरी के इस दुष्प्रचार का मुकाबला करती, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। भाजपा ने उन सीटों पर भी हिंदू-मुस्लिम विभाजन के सांप्रदायिक कार्ड का इस्तेमाल किया, जहां मुस्लिम अल्पसंख्यक आबादी न के बराबर है। विडंबना तो ये रही कि हर मोर्चे पर भाजपा सरकार की नाकामी के बावजूद कांग्रेस ने मुद्दों को उठाकर भाजपा को मतदाताओं के सामने कटघरे में खड़ा करने तक में भारी चूक कर दी। प्रियंका गांधी का ‘लडक़ी हूं लड़ सकती हूं’ अभियान भले ही यूपी में कांग्रेस के चुनाव प्रचार में चलता रहा, लेकिन उत्तराखंड़ की महिलाओं के बीच इस मुहिम को सही ढंग से नहीं ले जाया गया। यदि ऐसा होता तो संभव है कि कांग्रेस के जनाधार वाले पहाड़ में उसकी सरकार की वापसी हो सकती। महिलाएं जाहिर तौर पर उत्तराखंड के सामाजिक-आर्थिक जीवन का मजबूत आधार हैं। राज्य बनने के बाद भी उनकी आशाएं, आकांक्षाएं अधूरी हैं।
भाजपा का जनाधार
दूसरी ओर भाजपा ने मोदी मैजिक और जरूरतमंद परिवारों को दो साल से मुफ्त राशन बांटकर महिलाओं और गरीब तबकों में अपना जनाधार बढ़ाया है। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के नाम पर भाजपा का सबसे बड़ वोट बैंक पूर्व सैनिकों व उनके परिवारों का रहा। कांग्रेस ने भरपूर कोशिश की कि भाजपा के इस मजबूत वोट बैक में सेंध लगाई जाए, लेकिन उसकी तैयारी परवान नहीं चढ़ी। इस बार भी भाजपा ने ज्यादातर सीटों पर सेवारत फौजियों के बैलेट पेपर और पूर्व सैनिकों के वोटों के बल पर ही बढ़त बनाई।
मतदान के नतीजे बताते हैं कि उत्तराखंड़ में भाजपा के वोट में दो प्रतिशत की गिरावट आई है, लेकिन इसका भी लाभ कांग्रेस को नहीं मिला। खुश होने के लिए उसके पास यही एकमात्र बहाना है कि उसकी सीटें 11 से बढक़र 20 हो गईं। असल मे उत्तराखंड में कांग्रेस के सामने साख बचाए रखने का सबसे बड़ा संकट रहा है। 2012 से 2017 तक अपनी सरकार में अपने काम से कांग्रेस ने ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ी, जिससे लोग भाजपा को सत्ता से हटाकर आसानी से उसे बागड़ोर सौंप देते। भाजपा सरकार की पांच साल की नाकामियों के खिलाफ कोई ठोस रणनीति मैदान में नहीं उतारी गई।
भाजपा के मुकाबले कांग्रेस में समर्पित कार्यकर्ताओं का सबसे बड़ा संकट रहा है। कार्यकर्ताओं का यह संकट आने वाले दिनों में और भी बढ़ेगा, क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस से अब लगभग सारे राज्य छिन चुके हैं। केंद्रीय स्तर पर नेतृत्व की दिशाहीनता का असर उत्तराखंड पर भी पडऩा तय था। चुनाव में कांग्रेस का हर दांव उल्टा पड़ा। चुनाव कार्यक्रम घोषित करने के हरीश रावत के हठयोग ने कांग्रेस की छवि को नुकसान पहुंचाया, जबकि पांच साल की अस्थिरता के बावजूद भाजपा में इस तरह का कोई संकट नहीं दिखा। इन्हीं सारी बातों से भाजपा के हाथ मुद्दे लगते रहे और उसने सत्ता विरोधी रुझान को कांग्रेस के खिलाफ ही इस्तेमाल किया और इस बार भी दो तिहाई बढ़त हासिल कर ली।
जिस भाजपा से पांच साल तक डांवाडोल सरकार चलाने, विवादास्पद भू-कानून लाकर उत्तराखंड की जमीनों पर बाहरी कॉलोनाइजर्स और धन्ना सेठों का कब्जा कराने और भ्रष्टाचार के आरोपों के जवाब मांगे जाने चाहिए थे, वहीं भाजपा विपक्ष में पस्त पड़ी कांग्रेस से पांच साल का हिसाब मांगने लग गई। वहीं, कांग्रेस चुनाव अभियान के बीच आपसी झगड़ों और टांग खिंचाई में उलझी रही।
रत्तीभर संतोष
प्रदेश में कांग्रेस अपनी हार के लिए मतदाताओं या भाजपा को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती। अगर पांच साल तक उसने कारगर विपक्षी दल की भूमिका सही ढंग से निभाई होती तो उसे इतने बुरे दिन नहीं देखने पड़ते। उसे अब इसी पर संतोष करना होगा कि 2017 में मात्र 11 सीटों वाली पार्टी को इस बार 20 सीटें मिल गईं। चुनावी कुप्रबंधन, भितरघात और गलत लोगों को उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस ने भाजपा की राह कई सीटों पर आसान कर दी।
कांग्रेस की इस करारी हार से उन ज्वलंत मुद्दों की पराजय हुई, जिनके लिए इस राज्य का गठन हुआ था। अब भाजपा न तो गैरसैंण में स्थायी राजधानी की बात करेगी, न ही रोजगार, स्वास्थ्य, और सडक़, बिजली, पानी और अपने राज में हुए दर्जनों भ्रष्टाचार और घोटालों पर। इस जनादेश की आड़ में उसे अपनी पिछली नाकामियों पर पर्दा डालने का लाइसेंस जो मिल गया है।