आफताब पूनावाला और श्रद्दा वॉकर मामले को लेकर मीडिया जगत में क्रूरता बयां करने की होड़ सी मची है। आफताब ने श्रद्धा को मारा। आरी से उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े किए। फिर जंगल में 18 दिन तक इन टुकड़ों को फेंकता रहा–आदि-आदि। मगर वीभत्सता से भरी इन रिपोर्टों में मां-बाप के दुःख और लाचारी को उतनी ही निर्ममता से दबाया जा रहा है। उनकी पीड़ा को उतना कवरेज नहीं मिला रहा, जितने के वे हकदार हैं। इस निशृंस हत्याकांड का सबसे त्रासद पहलू कहीं पीछे छूटा जा रहा है।
इस पहलू में हम एक युवा देश की कड़वी हकीकत देख रहे हैं। युवाओं में स्थापित परंपराओं को तोड़कर आगे बढना फैशन सा हो गया है। उनके इस जुनून ने माता-पिता की हैसियत को ही दांव पर लगा दिया है। श्रद्धा उसी युवा जमात से ताल्लुक रखती थी, जिसने अपने माता-पिता की सीख को ताक पर रखकर बर्बादी का रास्ता चुना।
हमारे यहां एक कहावत है….जिन्ने न मानी बड़ों की सीख, उन्ने मांगी ले खपरा भीख। श्रद्धा के मामले में ये कहावत सटीक बैठती है। इस संदर्भ में जरा श्रद्दा के पिता विकास मदन वॉकर की मीडिया में छपी बातों पर गौर करें। वह कहते हैं, आजकल के बच्चे मॉडर्न स्टाइल में रहना पसंद करते हैं। इनके मन में मां-बाप के लिए कुछ तो सम्मान होना चाहिए, जो हमेशा अपने बच्चों की चिंता करते हैं। श्रद्धा ने मुझे समझा होता.. मेरी सुनी होती..तो ये सब नहीं होता। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जब श्रद्धा प्यार में पागल होकर आफताब के साथ लिव-इन में रहने जाने लगी, तब पिता विकास ने उसे बहुतेरा समझाया। मना किया कि आफताब अच्छा लड़का नहीं है, उसके साथ रहने का मन वह न बनाए। इसपर श्रद्धा का पिता को जवाब था, वह 25 वर्ष की है औऱ अपना निर्णय खुद ले सकती है।
यह हत्याकांड जितना जघन्य है, उतना ही बड़ों की उपेक्षा को उजागर करने वाला भी है। बड़ों की सीख को नजरंदाज करने का हश्र कितना बुरा हो सकता है, इसका संदेश इस कांड में छिपा है। मगर अफसोस कि युवा जमात को छोड़िये– किसी सरकारी अथवा सामाजिक मंच, टीवी डिबेट या प्रिंट मीडिया में इस मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा नहीं हो रही है। क्या सभी जिम्मेवारों का यही सामाजिक सरोकार है ? सब के सब युवा देश की मानसिकता लिए, आफताब को राक्षस और श्रद्धा को अबला नारी साबित करने में जरा सी भी कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
जबकि कड़वी सच्चाई ये है कि जितना आफताब दोषी है, उससे कम दोषी श्रद्दा नहीं थी। अगर ये कहने की हिम्मत समाज का कथित जिम्मेदार तबका नहीं दिखा रहा है, तो बड़े शर्म की बात है। बड़ों पर भी युवा देश की मानसिकता हावी होने का ही नतीजा है, जो अब—अंकल उल्लू मत बनो…जैसे विज्ञापन धड़ल्ले से दिखाए जा रहे हैं। क्या बड़े-बुजुर्गों की बेकद्री को बढावा देने वालों ने कभी यह सोचा कि आज के जमाने में मां-बाप अपने बच्चों के लिए क्या-क्या करते हैं? बच्चों का भविष्य संवारने पर किस हद तक खुद की इच्छाएं औऱ खुशियां न्यौछावर करते हैं? इसके बाद भी बच्चा बालिग होकर माता-पिता से कहता है, आप तो कुछ समझते नहीं…कुछ आता ही नहीं है। ये सुनकर माता-पिता पर क्या बीतती है…इसे निर्मोही समाज महसूस तक करने को तैयार नहीं है। तभी तो आज घर-घर में ‘बांगवान’ फिल्म का नजारा आम हो चला है।
