जमानत बाद रिहाई के दिशा-निर्देश

जमानत मिलने के बावजूद निर्धारित शर्तों को पूरा करने में नाकाम रहने वाले विचाराधीन कैदियों के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अहम कदम उठाया है। कोर्ट ने जमानत दिए जाने के बाद हिरासत में रहने वाले कैदियों के लिए सात अहम दिशा- निर्देश जारी किए हैं। शीर्ष कोर्ट जमानत को लेकर नियम तैयार करने के मामले में स्वतः संज्ञान लेकर सुनवाई कर रहा था। 26 नवंबर को संविधान दिवस पर राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु ने भी इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट के समारोह में भाषण के बाद भावुक अपील की थी। उन्होंने कहा था कि देश की जेलों में बंद हजारों कैदियों के पास जमानत पर रिहाई का कोर्ट आदेश तो है लेकिन उनके पास जमानत राशि के पैसे नहीं है। लिहाजा वो जेल में ही बंद है। कोर्ट और सरकार उनके लिए कुछ करे। इस अपील के दो दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने स्वत: संज्ञान लेते हुए रिपोर्ट तलब की थी। कोर्ट द्वारा तय दिशा-निर्देश इस प्रकार हैं—-

1.            अदालत जब एक अंडरट्रायल कैदी/दोषी को जमानत देती है, तो उसे उसी दिन या अगले दिन जेल अधीक्षक के माध्यम से कैदी को ई-मेल द्वारा जमानत आदेश की सॉफ्ट कॉपी भेजनी होगी। जेल अधीक्षक को ई-जेल सॉफ्टवेयर या किसी अन्य सॉफ्टवेयर (जिसे जेल विभाग द्वारा उपयोग किया जा रहा है) में जमानत देने की तारीख दर्ज करनी होगी।

2.            यदि आरोपी को जमानत देने की तिथि से 7 दिनों की अवधि के भीतर रिहा नहीं किया जाता है, तो यह जेल अधीक्षक का कर्तव्य होगा कि वह डीएलएसए (जिला विधिक सेवा प्राधिकरण) के सचिव को सूचित करे, जो कैदी के साथ और उसकी रिहाई के लिए हर संभव तरीके से कैदी की सहायता व बातचीत करने के लिए पैरा लीगल वालंटियर या जेल विजिटिंग एडवोकेट को नियुक्त कर सकता है।

3.            एनआईसी ई-जेल सॉफ्टवेयर में आवश्यक फ़ील्ड बनाने का प्रयास करेगा, ताकि जेल विभाग द्वारा जमानत देने की तारीख और रिहाई की तारीख दर्ज की जा सके। यदि कैदी 7 दिनों के भीतर रिहा नहीं होता है, तो एक स्वचालित ईमेल सचिव, डीएलएसए को भेजा जा सकता है।

4.            सचिव, डीएलएसए अभियुक्तों की आर्थिक स्थिति का पता लगाने की दृष्टि से, परिवीक्षा अधिकारियों या पैरा लीगल वालंटियर्स की मदद ले सकता है, ताकि कैदी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की जा सके। जिससे संबंधित न्यायालय के समक्ष ज़मानत की शर्तों में ढील देने के अनुरोध के साथ रखा जा सके।

5.            ऐसे मामलों में जहां अंडरट्रायल या दोषी अनुरोध करता है कि वह एक बार रिहा होने के बाद जमानत बांड या ज़मानत दे सकता है, तो अदालत अभियुक्त को एक  विशिष्ट अवधि के लिए अस्थायी जमानत देने पर विचार कर सकती है, ताकि वह ज़मानत बांड या ज़मानत प्रस्तुत कर सके।

6.            यदि जमानत देने की तारीख से एक महीने के भीतर जमानत बांड प्रस्तुत नहीं किया जाता है, तो संबंधित न्यायालय इस मामले को स्वतः संज्ञान में ले सकता है और विचार कर सकता है कि क्या जमानत की शर्तों में संशोधन/छूट की आवश्यकता है।

7.            अभियुक्त/दोषी की रिहाई में देरी का एक कारण स्थानीय ज़मानत पर जोर देना है। यह सुझाव दिया जाता है कि ऐसे मामलों में, अदालतें स्थानीय ज़मानत की शर्त नहीं लगा सकती हैं।

जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस अभय एस ओक की पीठ ने अपने आदेश में यह भी कहा कि भारत सरकार को एनएएलएसए ( राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण)  के साथ चर्चा करनी चाहिए कि क्या वह एनएलएसएऔर डीएलएसए के सचिवों को ई-जेल पोर्टल तक पहुंच प्रदान करे या नहीं। केंद्र की ओर से एएसजी केएम नटराज ने पीठ को आश्वासन दिया कि अनुमति देने में कोई समस्या नहीं होगी। हालांकि, वह सरकार से निर्देश मांगेंगे और सुनवाई की अगली तारीख पर अदालत में बताएंगे। इस मामले पर 28 मार्च को अगली सुनवाई होगी।

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