
— नंदा चतुर्वेदी —
अपना घर—ये शब्द सुनने में कितना अच्छा लगता है। घर में कितना सुकून मिलता है। सभी लोग यहां खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। लेकिन जब लड़कियों की बात आती है तो उनका अपना घर ही असुरक्षित हो जाता है।
आज से नहीं सदियों से लड़कियों की सुरक्षा एक अहम मसला रहा है। वे घर से बाहर निकलती हैं तो मां-बाप यही सोचते हैं कि बिटिया समय से, सही-सलामत घर लौट आए। हर समय वो इसी असुरक्षित भावना से घिरे रहते हैं। लेकिन बाहर के माहौल से बचाते-बचाते हम घर के हाल को पूरी तरह नजरंदाज कर देते हैं, जहां ज्यादातर लड़कियां जाने-अनजाने में शोषण का शिकार होती रहती हैं। बच्ची से लेकर किशोरी तक घर में जिन रिश्तेदारों को वो चाचा, मामा, अंकल, दादा, फूफा, जीजा, ताऊ, भाई आदि सम्बोधन से पुकारती हैं, वे ही उनका शोषण करते हैं। रिश्तेदारों के गलत स्पर्श और निगाहों से बच्चियों को यह अहसास ही नहीं हो पाता कि वे अपनों से किस तरह का प्यार पा रही हैं।
केवल रिश्तेदार ही नहीं, घर के नौकर-चाकर तक इस हैवानियत में शामिल होते हैं। पुरुष के साथ-साथ काम वाली बाईयां भी बच्चियों में बुरी आदतें डालने में लगी रहती हैं। इस मामले में सगे पिता और भाई पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है।
घर का ये माहौल हर कहीं देखा जा सकता है। अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे, अनपढ़, गांव-शहर हर जगह। पढ़े-लिखे शहरी लोग तो सभ्यता की आड़ में शारीरिक संतुष्टि करते हैं। इसमें उम्र का कोई लेना-देना नहीं, छोटे-बड़े सभी, बच्चियों की मासूमियत का नाजायज फायदा उठाते हैं।
सवाल ये उठता है कि क्या बच्ची की मां वाकई इनसब से अनजान होती है या फिर सब जानते-बूझते चुप रहती है। वास्तविकता तो ये है कि एक महिला को अच्छे-बुरे, गलत स्पर्श और निगाहों का बहुत अच्छे से पता होता है। फिर भी उनकी लड़कियां घर में इस तरह के शोषण का शिकार होती हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि जो महिला बचपन में ऐसे हालात से गुजर चुकी है, वो अपनी बेटी को नहीं बचा पाती।
इसका सबसे कड़ा कारण बदनामी की चिंता है। यदि कोई लडक़ी शोषण का विरोध करती भी है तो उसे बदनामी का डर दिखाकर चुप करा दिया जाता है। लोग क्या कहेंगे…क्योंकि हर घर में दादा, चाचा, ताऊ जैसे सम्माननीय रहते हैं। एक वजह महिलाओं की अपना व्यस्तता भी है। वे घर के काम में लगी रहती हैं। कुछ महिलाएं बाहर नौकरी पर जाती हैं। वे अपनी बच्चियों को समय नहीं दे पातीं और सब समझते-बूझते शोषण की समस्या को गंभीरता से नहीं लेतीं। उनके पास बच्चियों को सुनने का समय ही नहीं होता। ऐसे में लड़कियां चाह कर भी मां को कुछ नहीं बता पाती। वे गलत काम समझते हुए भी चुप रहती हैं और शारीरिक शोषण के साथ मानसिक शोषण भी झेलती रहती हैं। ये ही बच्चियों के आगे चलकर गलत राह पकडऩे लग जाती हैं। इनके अंदर मां-बाप के लिए विद्रोह की भावना घर कर जाती है।
किशोरावस्था में हर बच्चा शारीरिक परिवर्तन के दौर से गुजरता है। ऊपर से घर का सोचनीय माहौल। ऐसे में शोषित बच्चियां गुमसुम सी अपने में ही खो जाती हैं। उनका पूरा व्यक्तित्व प्रभावित हो जाता है। जबतक हमें इसका नकारात्मक प्रभाव दिखता है, तबतक बहुत देर हो चुकी होती है। हमारे पास पछतावे के सिया कुछ नहीं रह जाता। सामान्य स्थिति लाना या तो नामुमकिन हो जाता है, या फिर इसमें काफी समय लग जाता है।
लगे अपना आशियाना
घर को ‘अपना घर’ बनाना वैसे तो आज खासा चुनौतीपूर्ण हो चला है, लेकिन ईमानदार प्रयास हों तो अनुकूल वातावरण तैयार करना संभव है। घर को मंदिर बनाने की लगन मन में पैदा करनी होगी। जहां हरकोई खुद को सहज महसूस करे। मां-बेटी का रिश्ता ऐसा हो, ताकि बेटी अपनी मां को हर बात नि:संकोच होकर बता सके। लाख व्यस्तता के बावजूद मां, बेटी से बात करने का समय निकाले। इसके अलावा घर में जरूरत के हिसाब से ही नौकर रखे जाएं, वह भी दिन में काम करने के लिए। ताकि उसपर हर समय निगरानी रखी जा सके। 24 घंटे का नौकर मतलब समस्याओं का प्रवेश द्वार। वे घर के सदस्यों के साथ घुलमिल कर ही उनमें बुराईयों का धीमा जहर घोलते हैं। अगर स्थायी नौकर रखना जरूरी है तो उसके रहने का स्थान घर से बाहर होना चाहिए। ताकि रात से समय घर सिर्फ घरवालों का रहे।
एक और बात, घर के पुरुष सदस्यों से महिलाएं खुले तौर पर शारीरिक दूरियां बना कर रखें। बड़े सदस्य अपसी बातचीत में सही व शालीन शब्दों का प्रयोग करें, जिससे बच्चों के अबोध मन पर बड़ों की बातों का गलत प्रभाव न पड़े। उनकी बोली खराब न हो। बच्चा कोई भी हो, लडक़ा या लडक़ी, उसे शालीनता से बोलना, सही-गलत की पहचान करना, बड़ों का सम्मान करना और किसी से भी ज्यादा लिपटने-चिपकने की बजाय उनसे उचित दूरी बनाए रखना सिखाया जाए। साथ ही, हर परिस्थिति को समझने तथा उससे निपटने का कौशल समझाया जाए। बच्चों में अत्म-विश्वास जगाने के लिए उनके छोटे-छोटे कामों की प्रशंसा तथा हौसल अफजायी जरूरी है। सबसे जरूरी बात ये कि, बच्चों के कपड़ों का चयन समझदारी भरा हो। क्योंकि अंग-प्रदर्शन वाला पहनावा भी गलत निगाहों और स्पर्श को बढ़ावा देता है। लिहाजा शालीन कपड़े पहनने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।