
— अनिल चतुर्वेदी —
देश में हुए लॉकडाउन से कोरोना वायरस का फैलाव तो थमा नहीं, पर दो कड़वी हकीकत उजागर हो गईं। एक तो राजतंत्र की जनसेवा का आडंबर पूरी तरह से बिखर गया। दूसरा, चिकित्सा क्षेत्र के निजीकरण की असलियत सामने आ गई। वैसे तो कोरोना संक्रमण रोकने के लिए ही देशभर की घरबंदी की गई थी, लेकिन अनलॉक करते ही जिस तेजी से ये बीमारी भी अनलॉक हुई है, उसने लॉकडाउन की सार्थकता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है।
लॉक-अनलॉक का छिद्रान्वेषण तो अंदर के पेजों पर किया गया है। क्योंकि जून अंक का मुद्दा यही लिया गया है। यहां हम दोनों कड़वी हकीकत पर बात करते हैं। राजतंत्र की एक फितरत है। जनसेवा के नाम पर जनता को चक्कर लगवाना। यूं भी कह सकते हैं कि आबादी के अनुपात में लोकशाही बहुत कम हैं औऱ सारी लोकसेवा केन्द्रीयकृत है। जाहिर है, तब लडख़ड़ाई लोकसेवा से तंग जन-सैलाब सरकार के द्वार पर ही उमड़ेगा। सबको राहत देने में अक्षम, लेकिन असीमित अधिकार-सम्पन्न लोकसेवकों की सीमित संख्या बौखलाहट में सामने वाले को चकरघिन्नी ही करेगी। वैसे तो लोकसेवक और जननेता अभीतक भ्रष्टाचार, मंहगाई और लालफीताशाही के जरिये अपनी फितरत को अंजाम देने के साथ-साथ जनता से मेल-मिलाप और कहना-सुनना भी जारी रखते आए हैं। मगर कोरोना लॉकडाउन ने राजतंत्र के इस आडंबर को बेपर्दा कर दिया। यानि कि, तंत्र को मन की बात पूरी करने का अवसर मिल गया। उसने सोशल डिस्टेंसिंग के बहाने जनता को अछूत मानकर दूर रखने की दशकों से दबी चली आ रही अपनी मुराद पूरी कर ली। राजनेताओं ने जनसुनवाई बंद कर दी। सरकारी दफ्तरों के द्वार जनता के लिए बंद कर दिए गए। यहां तक कि, पासधारियों का भी ज्यादातर दफ्तरों में प्रवेश स्थगित कर दिया गया।
समूचे राजतंत्र की मन-मुराद पूरी किए जाने का सिलसिला अनलॉक-01 में भी बदस्तूर जारी है। दफ्तरों की दीवार के अंदर लोकशाही स्वच्छंद काम कर रही है। न अछूतों के आने-जाने की अड़चन, न किसी की निगरानी या टोका-टोकी। पूरी मनमर्जी की जनसेवा। ऐसे सुअवसर में मातहतों द्वारा अधिकारियों की और अधिकरियों द्वारा सरकार की मिजाजपुर्सी भी तबियत से हो रही है। लोकसेवकों के समर्पणभाव से सरकार गदगद् है। ऐसा भव्य, स्वच्छंद माहौल लंबे समय तक बनाए रखने को अनलॉक की आड़ में ‘स्व-लॉक’ के कई चरण लाए जाते हैं तो ताज्जुब नहीं होगा।
दूसरी हकीकत इसलिए गौरतलब है, क्योंकि भारत में लगभग 80 फीसदी चिकित्सा निजी क्षेत्र के शिकंजे में है। मेडिकल शिक्षा से लेकर इलाज तक निजी क्षेत्र छाया हुआ है। इसने कभी चिकित्सा को मानवसेवा रूप में लिया ही नहीं। मेडिकल की पढाई को करोड़ों रुपए का खेल बनाने तथा इलाज को लाखों, करोड़ों का पैकेज बनाना निजी क्षेत्र की ही कलाकारी है। मेडिकल टूरिज्म के लिए पांच सितारा अस्पताल भी इसी क्षेत्र में देखने को मिलेंगे। शत-प्रतिशत मुनाफे की अवधारणा लेकर चलने वाले निजी क्षेत्र को कोरोना महामारी का इलाज घाटे का सौदा लगा। लिहाजा उसने अपने चिकित्सा प्रतिष्ठानों पर ताले लगाकर सारी बीमारियों के इलाज टाल दिए। सरकार का दबाव पड़ा तो बला टालने को एक से एक बहाने बनाए जाने लगे। उनके बचाव में ‘सहयोगी’ सरकारी एजेंसियां सामने आ गईं। इन एजोसियों ने कोरोना जांच व इलाज में निजी क्षेत्र की अक्षमता का ऐसा माहौल बनाया कि अधिकांश निजी लैब तथा अस्पताल इस महामारी के उपचार से मुक्त कर दिए गए। वर्तमान में कोरोना मरीजों की तेजी से बढती संख्या में इन अर्थ-पिशाचों का असहयोग शर्मनाक भूमिका निभा रहा है।
इनकी हरकतों के बीच चिकित्सा सामग्री व दवा निर्माता अपना खेल जारी रखे हैं। कोरोना की दवा या वैक्सीन तैयार करने की कोई कंपनी बात करती है तो बाकी दवा कंपनियां ‘सहयोगी’ सरकारी एजेंसियों के साथ मिलकर उसकी टांग खींचने लग जा रहे हैं। व्यावसायिक स्पर्धा के इस नंग-नाच से लग तो ये रहा है कि कोरोना की असरदार और सस्ती दवा व वैक्सीन जल्दी बाजार में नहीं लाने की विश्वस्तर पर साजिश रची गई है। ताकि वर्तमान में उपलब्ध वैकल्पिक दवाओं से बेहिसाब कमाई जारी जा सके।
हालांकि इस स्याह सच के बीच सिल्वर-लाइन भी नजर आती है। मथुरा का के डी अस्पताल निजी चिकित्सा क्षेत्र के पाप धोने में जुटा हुआ है। वहां कोरोना के मरीजों का मुफ्त इलाज किया जा रहा है। अस्पताल की बेहतरीन चिकित्सा सेवा से अब तक सैकड़ों मरीज ठीक हो चुके हैं। एक भी संक्रमित की मौत नहीं हुई। अस्पताल की विश्वसनीयता इसी से साबित होती है कि इसके मालिक ने अपने कोरोना पीडि़त पुत्र का उपचार एम्स,दिल्ली से निकालकर अपने अस्पताल में कराया। अस्पताल के मालिक केदारनाथ अग्रवाल ने दिखा दिया कि चिकित्सा पैसा कमाने का नहीं, रोगियों की पीड़ा हरने का पुण्य कार्य है।