
— अनिल चतुर्वेदी —
वंशवाद व्यवसाय में सफल होता है, लेकिन लोकतांत्रिक राजनीति में बिलकुल ही नहीं। कांग्रेस इसकी जीती-जागती मिसाल है। वंशवाद के चलते भारत की सबसे पुरानी यह पार्टी रसातल की ओर तेजी से लुढक़ रही है। हालात ये हो चले हैं कि वंशवादी नेतृत्व कामजोर होने के कारण पार्टी को सही दिशा और नई ऊर्जा नहीं मिल पा रही है। नेतृत्व के इर्दगिर्द सक्रिय नेताओं ने अपनी जड़ें इतनी गहरी जमा लीं हैं, जिन्हें उखाडऩा दुरूह हो चला है। ये नेता भी वंशवाद की राह पकड़े हुए हैं। पार्टी नेतृत्व की भांति ये नेता भी अपने परिजनों की सियासी जमीन तैयार करने में व्यस्त हैं। इनके लिए पार्टी से बड़ा खुद का कद हो गया है।
दुष्परिणाम ये हो रहा है कि जमीन से जुड़े नेता और कार्यकर्ता कांग्रेस से दूर हो रहे हैं। जो युवा नेता पार्टी में आ भी रहे हैं, उनमें से ज्यादातर किसी न किसी उम्रदराज नेता के नाते-रिश्तेदार हैं। इन बड़े नेताओं ने बढती उम्र की वजह से अपनी राजनीति विरासत किसी समर्पित नेता की बजाय पुत्र-पुत्री या किसी अन्य रिश्तेदार को सौंपना ही सही माना है। सचिन पायलट, जतिन प्रसाद, मुरली देवड़़ा, ज्योतिरादित्य सिंधिया, प्रिया दत्त, कनिष्क सिंह आदि सभी युवा नेता किसी न किसी बड़े नेता अथवा नौकरशाह की संतान हैं। इन सभी ने शायद ही कभी जमीनी स्तर पर पार्टी के लिए कोई काम किया है। सीधे सांसद, विधायक औऱ मंत्री बन अपने राजनितिक जीवन की शुरूआत की है। आम कार्यकर्ता की भांति मेहनत और संघर्ष के बाद ऊपर उठने का जतन इनमें से किसी को भी नहीं करना पड़ा है।
बिना खून-पसीना बहाए राजसुख मिल जाने से इन युवा नेताओं की महात्वाकांक्षा भी बढ गई। जिस कारण इनका पार्टी में अभी तक जमे बुजुर्ग नेताओं से अहम का टकराव तेजी से सामने आ रहा है। बुजुर्ग नेता अपनी विरासत नाते-रिश्तेदारों के अलावा किसी को सौंपने के लिए तैयार नहीं हैं। मगर उनके बेटा-बेटी राजनीति में पैर जमा नहीं पा रहे हैं, लिहाजा बुजुर्ग नेता खुद ही जीवन पर्यंत सक्रिय रहना चाह रहे हैं। उनकी ये सोच ही टकराव की असल वजह बन गई है। राजनीतिक तथा प्रभावशाली घराने से ताल्लुक रखने वाले युवा नेताओं को बुजुर्गों का कुर्सी मोह खटक रहा है।
देखा जाए तो वंशवाद की बेल ने कांग्रेस को बुरी तरह जकड़ लिया है। पार्टी को नेतृत्व प्रदान करने वाला गांधी परिवार स्वयं राजनीति कौशल के अभाव से जूझ रहा है। न पार्टी अध्यक्ष के पास कोई विजन है, न ही उनके पुत्र राजनीतिक चातुर्य के धनी हैं। अध्यक्ष मैडम की पुत्री में जरूर खानदानी राजनीतिक प्रतिभा देखी जा सकती है। मगर वो अपने नैसर्गिक हुनर से संगठन को मजबूत करने के मूड में नहीं दिखाई देती हैं। उन्होंने खुद को उत्तर प्रदेश में सीमित कर लिया है। हालांकि वहां उन्होंने संगठन का कायाकल्प कर प्रदेश के सारे मठाधीश बुजुर्ग नेताओं को घर बिठाकर ऊर्जा से भरी युवा टीम खड़ी की है।
पुत्री के ये तेवर देखकर राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय बुजुर्ग नेता उन्हें दिल्ली से दूर रखना चाहते हैं। कहा तो ये जा रहा है कि पुत्री को उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपना, उन्हें राष्ट्रीय स्तर की राजनीति से दूर रखने की बुजुर्गों की रणनीति का ही हिस्सा है। इस संबंध में राजस्थान के एक वरिष्ठ कांग्रेस विधायक का कथन गौरतलब है। वह कहते हैं कि प्रियंका गांधी को उत्तर प्रदेश भेजकर उनकी राजनीति परवान चढऩे से पहले ही समाप्त करने का कुचक्र रचा गया है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि बुजुर्ग नेता गांधी परिवार के कुलदीपक को तो फिर कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन प्रियंका को पार्टी का बागडोर सौंपने का मांग एकबार भी नहीं की है। क्योंकि उन्हें डऱ है कि पुत्री कहीं राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव की बयार न चला दे। तब उन सब को भी घर बैठना पड़ जाएगा।
बुजुर्ग नेता अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम दौर में राजसुख भोगने को उतावले होकर युवा नेताओं की वाट लगा रहे हैं। इसी वजह से मध्य प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ गई। अब यही नजारा राजस्थान में देखने को मिल रहा है। बुजुर्ग मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, युवा सचिन पायलट को जिस तरह लगातार उपेक्षित करते रहे, उसी का नतीजा है कि पायलट इस समय राज्य सरकार के लिए सबसे बड़ा खतरा बन गए हैं। गहलोत बौखलाहट में जो भी उल्टा-सीधा सूझ रहा है वो कर रहे हैं। वैसी ही ऊट-पटांग बयानबाजी कर रहे हैं, जिसे उनके स्वभाव के बिलकुल विपरीत बताया जा रहा है। किंतु इससे यह साफ हो जाता है कि वह अपने मन में राजनीतिक विरोधियों के प्रति कितनी नफरत पालते हैं और उन्हें निपटाने में वह किस हद तक जा सकते हैं।
प्रस्तुत अंक में हमने कांग्रेस पार्टी के ओल्ड गार्ड्स बनाम युवा ब्रिगेड द्वंद को ही प्रमुखता दी है। यह मानते हुए कि सबसे पुराने राजनीतिक दल का आपसी कलह औऱ वंशवाद की जकड़ में आना देश के लिए अच्छा नहीं है। सभी दलों की आंतरिक मजबूती लोकतंत्र को निखारने के लिए जरूरी है। इसके लिए किसी भी संगठन में पीढ़ीगत बदलाव की प्रक्रिया सामान्य रूप में जारी रहनी चाहिए। बदलाव में वंशवाद नहीं, हुनर को महत्व मिले। हुनरमंद युवा नेताओं के लिए बुजुर्ग नेता स्वत: जगह बनाने का जतन करें।