बदलाव खुद में भी जरूरी

— अनिल चतुर्वेदी —

हाड़-मांस की दुर्गा मां की अस्मिता पर बार-बार हो रहे हमले से व्यथित होकर इस बार हमने पत्रिका का प्रमुख मुद्दा महिलाओं के हाल को ही बनाया है। मुद्दा आलेख भी सिर्फ महिलाओं ने ही तैयार किए हैं। उन्होंने स्त्री मनोदशा को हूबहू व्यक्त करने की पूरी कोशिश की है। समस्या के विभिन्न पहलुओं पर लेखनी चलाई है, लेकिन समस्या खड़ी करने में खुद महिला की भागीदारी और उनके पहनावे पर ज्यादा बात नहीं की गई है।

लेखिकाओं की स्वतंत्र अभिव्यक्ति को जस का तस दिया जा रहा है। इसमें जरूरी संपादन ही किया गया है। बस, उनके लेखन में जो बिंदु अनछुए रह गए, उन्हीं पर यहां बात की जा रही है। महिला ही महिला की दुश्मन होती है—इस धारणा के पीछे उनके ईष्र्या, द्वेष जन्य स्वभाव की बड़ी भूमिका रहती है। सास-बहू, ननद-भाभी, देवरानी-जिठानी के बीच चिर बैर में यही स्वभाव सक्रियता निभाता है। महिला शोषण के कई मामले उनके अपने स्वभाव की देन ही होते हैं।

महिला, महिला की दुश्मन होने का नजारा शहरों में एक और रूप में दिखता है। वो नजारा एक मां का अपनी लाड़ली के पहनावे से खिलवाड़ का होता है। अबोध बच्ची को सजाने-संवारने के नाम पर मां उसे ऐसे तंग कपड़े पहनाती है, जिसपर उसके इर्द-गिर्द मंडराने वालों दुष्ट सोच वालों की नीयत डोल जाए।  

महिलाओं तथा बच्चियों का पहनावा उनके शोषण की समस्या को और गंभीर बनाता है। हालांकि इस वजह को आज अधिकांश महिलाएं यह कहकर खारिज कर देती हैं कि पुरुषों की सोच में खोट है, महिलाओं के पहनावे में नहीं। मगर हम यहां अपनी बात को उदाहरण देकर स्पष्ट करना चाहेंगे। पाषाणकाल में आदिमानव नग्नावस्था में रहा करते थे, लेकिन समय के साथ उन्होंने शरीर के उत्तेजक अंगों को पेड़ की छाल व पत्तों से ढकना शुरू कर दिया। इस बदलाव को हमने विकास कहा। न तो आदि-पुरुष शिक्षित थे, न ही संस्कारी। फिर भी उनमें उचित-अनुचित का बोध विकसित हुआ और उपलब्ध संसाधनों से शालीन पहनावा अपनाने की परिपक्वता दर्शायी। इसके विपरीत आज शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ महिला के तन से कपड़े कम होते जा रहे हैं। अंग-प्रदर्शन की होड़ मची हुई है। क्या इसे पाषाणकाल की ओर लौटना नहीं माना जाएगा?

हमें इस सच्चाई को मानना होगा कि महिलाओं पर जुल्म ढाने वाले पिशाच हर युग में रहे हैं। चाहे पाषाणकाल हो या आज का आधुनिक काल, इन पिशाचों से अस्मिता बचाने के लिए पहनावा शालीन रखने का उदाहरण हमारे सामने है। उत्तेजक अंगों का प्रदर्शन करते अप्सराओं के परिधान ऋषि-मुनियों तक को भटकाते रहे हैं। महिला हो या पुरुष, उत्तेजना सब में बराबर होती है। पहनावे की घास-फूस में उत्तेजना की आग न लगे, ये भला कैसे मुमकिन हो सकता है। संक्षेप में, शालीन परिधान महिलाओं का कवच बन सकते हैं। यदि इस कॉलम में व्यक्त किए गए मत को महिला मुद्दा बनाया जाता है तो यह एक बार फिर महिला ही महिला की दुश्मन वाली बात होगी, क्योंकि शील महिला की नैसर्गिक आवश्यकता है, बहस का विषय नहीं।

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